Friday, December 27, 2013


एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान का सबसे बड़ा भक्त है. तब श्री कृष्ण साधारण वेश धारण कर अर्जुन को घुमाने ले गए.
रास्ते में उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण से हुई. उन्होंने देखा, कि वह सूखी घास खा रहा है और उसकी कमर से तलवार लटक रही है.
"आप तो अहिंसा के पुजारी हैं. जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर गुजारा करते हैं. फिर यह हिंसा का उपकरण तलवार आपके साथ क्यों है...?" अर्जुन ने विस्मय से देखते हुए पूँछा !
ब्राह्मण :-"मैं कुछ लोगों को दण्डित करना चाहता हूँ..!"
अर्जुन :- "आपके शत्रु कौन हैं..?" अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की !
"ब्राह्मण :-"मैं चार लोगों को ढूँढ रहा हूँ, ताकि उनसे हिसाब चुकता कर सकूँ..!"
"सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है. नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते. सदाँ भजन-कीर्तन कर उन्हें जाग्रत रखते हैं..!"

"दूसरा मैं द्रोपदी पर बहुत क्रोधित हूँ. उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वे भोजन करने बैठे थे. उन्हें तत्काल खाना छोड़, पांडवों को दुर्वासा ऋषि के श्राप से बचाने जाना पड़ा. उसकी ध्राष्टता तो देखिए, मेरे प्रभु को झूँटा खाना खिलाया..!"

तीसरा है प्रह्लाद, "उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गर्म तेल के कढाये में प्रविष्ट कराया. हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खम्बे में प्रगट होने के लिए विवश किया..!"

चौथा शत्रु है अर्जुन, "उसने मेरे भगवान को सारथी ही बना डाला. उसे मेरे भगवान की असुविधा का जरा भी ख्याल नहीं रहा, कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को..!" यह कहते ही ब्राह्मण की आँखों में आँसू आ गए !
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अर्जुन ने श्री कृष्ण की ओर देखा, वे मंद-मंद मुस्करा रहे थे. अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो चुका था.
"मान गया प्रभु, इस संसार में आपके न जाने कितने भक्त हैं. मैं तो कुछ भी नहीं..!" अर्जुन ने माफ़ी माँगते हुए श्री कृष्ण से कहा !
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जय श्री कृष्ण...... जय मुरली वाले की
जय हरि बोल.......


Sanjiv Ranjan
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